चौड़ी छाती योद्धा वाली,
बाँहों थी उनकी बलशाली।
चलते थे वो सिंह के जैसे,
गुण, श्रेष्ठ ब्राह्मण के जैसे।।
उनसे भय भी भय खाता था,
निर्भय जीवन हो जाता था।
वो वेद शास्त्र के ज्ञाता थे,
क्या है उसमें समझाते थे।।
क्यूँ मैं ना उनके जैसा हूँ ?
माँ, क्या मैं पापा जैसा हूँ ?
क्या तेज था उनके चेहरे पर,
वाणी में उनकी दर्शन था।
हर महफिल में आकर्षण के,
वो केन्द्र बिंदु बन जाते थे।।
अनुशासन के सिद्धांतों पर,
समझौता उन ने नहीं किया।
सच के पथ पर चलते चलते,
कभी सर को झुकने नहीं दिया।।
कैसे इतने गुण अपनाऊंँ ?
कैसे उन सा मैं बन पाऊँ ?
माँ क्या मैं पापा जैसा हूँ ?
माँ, मैं ना पापा जैसा हूँ ?
जीवन की हर चुनौती को,
उन्होंने हँस स्वीकार किया।
आने वाली हर बाधा को,
अपने बल पर ही पार किया।।
स्वाभिमानी व पुरुषार्थी थे,
हमको भी यही सिखाते थे ।
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते‘ ,
यही पाठ वो हमें पढ़ाते थे।।
उनके पथ पर चल पाऊँगा ?
क्या मैं वैसा बन पाऊंगा ?
मैं क्यों नहीं उनके जैसा हूँ ?
माँ, क्या मैं पापा जैसा हूँ ?
निर्भय थे वो भृगुवंशी थे,
मर्यादा में रघुवंशी थे।
वो पौरूष पुरुष आकर्षक थे,
वो दानवीर और रक्षक थे।।
वो कवि थे और एक लेखक थे,
वो असहायों के सेवक थे।
नई पीढ़ी के वो प्रेरक थे,
वो देशभक्त जन सेवक थे।।
पापा कुछ अपने गुण दे दो,
अपने जैसा संबल दे दो।
वैसा ही दृढ़ संकल्प दे दो,
कुछ और स्नेह के पल दे दो।।
अपना प्यारा ‘निश्छल‘ दे दो,
मुझे आज नहीं, वही ‘कल‘ दे दो।
तब मैं भी कुछ कर पाऊंगा,
आपके जैसा बन पाऊंगा।।
तब ही माँ यह कहपायेगी,
हाँ, अब तू पापा जैसा है।
हाँ तू भी पापा जैसा है,
माँ, क्या मैं पापा जैसा हूँ?