प्रायश्चित करने की पात्रता एवं क्षमता इंसान को ईश्वर की दी हुई खास नेमत है। प्राणिजगत में यह खूबी शायद और किसी प्रजाति में नही है। और ऐसा सम्भवतः इसलिए है कि इंसान केवल पेट भरने के लिये नही जीता। बुनियादी भौतिक ज़रूरतों के आगे भी उसकी बौद्धिक पहुंच है क्योंकि उसके पास ‘विवेक’ नामक एक ऐसा तिलस्मी वरदान है जो उसे ‘चैन’ से जीने नही देता! ‘आज पेट भरले, कल की कल देखी जाएगी’ वाली बेफिक्री इंसान की किस्मत और फ़ितरत दोनों में नही है। पेट भरने की जद्दोजहद में हुई किसी भूल के प्रति भी इंसान अपनी जिम्मेदारी मानता-समझता है और उसका अपराधबोध उसे प्रायश्चित करने के लिए प्रेरित करता है।
लेकिन ये इंसान की शायद सबसे कम इस्तेमाल की जाने वाली नेमतों में से एक है। इतना ही नही, हम जब देर-सबेर इसका इस्तेमाल करते भी हैं, गलत इस्तेमाल करते हैं। हम केवल वैचारिक स्तर पर प्रायश्चित करके मान लेते हैं कि हमारा कर्तव्य पूरा हो गया। जबकि प्रायश्चित तो मूलतः व्यावहारिक स्तर पर हासिल की जाने वाली आत्म-शुद्धि है। ये भूल-सुधार का ज़मीनी न कि ज़हनी तरीका है, जो कि ज्यादा कठिन है। हमारी कानून व्यवस्था में भी गलती के लिए प्रायश्चित से ‘सजा’ पर ज़ोर ज्यादा है। और ये दोनों पूरी तरह विरोधाभासी अनुभूतियां हैं। एक स्वैच्छिक रूप से अंदर से महसूस होने वाली तो दूसरी बलपूर्वक बाहर से थोपी जाने वाली। सज़ा तो गलती के भावनात्मक ज़ख्म को भरने का एक कृत्रिम एवं आत्मघाती तरीका है। सजा गलती का कानूनी मुआवजा हो सकती है, प्रायश्चित कभी नही।
सही प्रायश्चित तो ईश्वर की भक्ति का एक प्रकार है। और इबादत कभी ज़बरन नही होती।
सुप्रभात!
प्रायश्चित
previous post