दूर में तुमसे जा ना सकूंगा,
यही रहूंगा छुपके!
नहीं गिरे एक भी आंसू,
हंस कर विदा दो मुझको।।
जाते–जाते रुके वह कुछ क्षण और कहा था मुझसे।।
मैंने फिर उन्हें रोका,
और पूछा आपको देखूंगी कैसे?
वे बोले, अगर चाहो मुझे देखना,
जाना घर की छत पर।
वही किसी तारे में मां संग,
दृष्टि रखूंगा तुम पर,
मेरे बेटे तब जी भर कर,
मिल लेना तुम मुझसे,
नहीं गिरे एक भी आंसू।
दुख ना देना मुझको।।
मेरे बेटे बहुत हुआ
अब जाने दे मुझको।।
जाते–जाते रुके वह कुछ क्षण, और कहा था मुझसे।
स्थूल रूप मेंरा जा रहा,
सूक्ष्म रूप में यही रहूंगा,
मिला करूंगा तुमसे।।
मैंने पूछा कहां? तो वे बोले,
मां के आशीषों में मैं हूं।
भाई के स्पर्श में मैं हूं।
बहन के स्नेह में मैं हूं।
परिवार के अनुशासन में मैं हूं।
प्रशासन और कानून व्यवस्था में मैं हूं।
गीता के ज्ञान में मैं हूं।
संस्कृत भाषा में भी मैं हूं। काव्य और ठहाकों में मैं हूं।
घर की माटी में भी मैं हूं।
बगिया की खुशबू में मैं हूं।
मन की शक्ति में मैं हूं।
दूर में तुमसे जा सकूंगा,
यही रहूंगा छुपके।।