हमारी संवेदी इंद्रियों की क्षमता से परे, हमारी चेतना से ऊपर और हमारे ज्ञान की आखिरी सीमा के बाहर जो है वो जो अंदर है उससे कहीं ज्यादा है। ‘ये सब कैसे हुआ?’ के चिरातन यक्ष-प्रश्न के उत्तर से हम आज भी शायद उतने ही दूर हैं जितना सृष्टि के आरम्भ में थे। कोशिश हमने बहुत की है इसमें दो राय नही है, लेकिन ठोस अभी कुछ भी नही है। आए दिन ऐसी बातों की खोज होती रहती है जो हमारी पुरानी मान्यताओं की बखिया उधेड़ देती हैं। अभी बहुत कुछ जानना है और दिल्ली वाकई में दूर है!
पतेलेभर अज्ञान की खिचड़ी में चुटकीभर ज्ञान का तड़का लगाकर हम खुद को ज्ञानी और बुद्धिमान कहते हैं। अपने अजस्त्र अज्ञान पर शर्मिंदा या हतोत्साहित होने के बजाए विनम्र एवं संजीदा होने की ज़रूरत है। क्योंकि तभी हम अपनी प्रेरक जिज्ञासा को जीवित रख पाएंगे। इस सब में जिज्ञासा-मारक अहंकार की गुंजाइश ही कहां है? सोचिए!
सुप्रभात!
कहां है? सोचिए!
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